Friday, October 13, 2017

मेरी आत्मकथा- 18 (जीवन के रंग मेरे संग) खुशहाल-दुखिया

क्रमशः
मेरी आत्मकथा- 18  (जीवन के रंग मेरे संग) खुशहाल-दुखिया
अब मुझे अपनी लड़की के साथ ससुराल में हो रहे ऐसे व्यवहार की जड़ खोजकर उसका उपचार करना था | सबसे पहले मैनें अपनी लड़की तथा अपने दामाद से ही इसकी शुरूआत करना उचित समझा | उनके सामने अपनी बात रखने का मौक़ा मुझे जल्दी ही मिल गया |
प्रभा का जन्म दिन था | मैनें अपनी लड़की तथा दामाद को अपने घर बुला लिया | सब हंसी खुशी चल रहा था कि संतोष मनोज जी से पूछ बैठी, क्यों जी, मुझे ऐसा लगता तो नहीं कि प्रभा को अपनी ससुराल में किसी प्रकार की कोई दिक्कत होगी |
अपनी सास की बात सुनकर मनोज जो शायद इसी बात का इंतज़ार कर रहा था कि कोई बात शुरू करे अपनी माँ के अंदाज में शुरू हो गया तथा एक के बाद एक प्रभा की गलतियां गिनवाते हुए उसे रूलाते रहे | प्रभा जब अपने  पति के बे-बुनियाद लांछन सुनते सुनते थक गई तथा उससे और सहन न हुआ तो वह अपना सिर अपने पापा के कंधे पर रखकर ऐसे सुबकने लगी जैसे कह रही हो, पापा जी मुझे माफ कर देना मैं आज तक आपको सफ़ेद झूठ बोलती आई हूँ क्योंकि मैं आपका दिल दुखाना नहीं चाहती थी | वास्तव में कहीं आपको मेरा नरक जैसा जीवन व्यतीत करते जानकर ठेस न पहुंचे मैं आपके सामने हमेशा एक खुशहाल दुखिया की भूमिका अदा करती आई हूँ |
प्रभा रोती रही, मनोज देखता रहा, संतोष अपने अंदर ही अंदर घुलती रही, मैं अपनी बेटी के सिर पर स्नेहमही हाथ फेरता रहा तथा सोचता रहा कि इस समस्या का समाधान क्या तथा कैसे हो सकता है | जब प्रभा की आँखों के आंसू खत्म हो गए तो वह उठी और निढाल होकर बिस्तर पर गिर पड़ी | उसकी मूक आँखें ऊपर छत को निहारने लगी |
मैं मुहं से तो कुछ बोल न सका परन्तु मेरा मन अंदर ही अंदर रो रहा था | मुझे आज अपने जीवन की सबसे बड़ी   ग्लानी महसूस हो रही थी | रात काफी बीत चुकी थी | आहिस्ता आहिस्ता सभी अपने अपने बिस्तरों की तरफ बढ़ गए | मेरी आँखों से नींद कोसों दूर जा चुकी थी | अभी तक जो बाँध उन्होंने बचा रखा था वह टूट गया तथा पलकों से बाहर अश्रुधारा बह निकली | मैं इसी हालत में उन लोगों के कहे शब्दों के बारे में सोचता रहा जिन्होंने शादी से पहले मुझे चेतावनी देने के लिहाज से कहे थे,
देख लो लड़के की माँ बहुत तेज है |
भाई जी समधिन बड़ी खुर्राट मिलेगी |
अभी तो वह अपने रंग नहीं दिखाएगी परन्तु बाद में बीस रंग बदलेगी |
वह बहू पर तरह तरह के लांछन लगाएगी | इत्यादि |
इस बीच मैं बार बार अपनी बेटी के बिस्तर की और देख रहा था जिस पर वह निर्जीव सी पड़ी थी | जब मैनें पाया कि मेरी बेटी करवट बदल रही है तो मेरे सब्र का बाँध टूट गया | मैं अपने स्थान से उठा और अपनी बेटी को गले लगाकर फूट फूट कर रोने लगा | मुझे अंदर ही अंदर पछतावा हो रहा था तथा मन कह रहा था, बेटी मुझे माफकर देना क्योंकि तेरी नरक भरी जिंदगी का जिम्मेदार मैं ही हूँ | अगर मैं लोगों की कही बात मान लेता तो मुझे ये दिन देखने को न मिलते |
प्रभा अपने दुखों को भूलकर मेरे रोने से अधिक दुखी होकर बोली, पापा जी आप रोओ मत |
बेटी मैं क्या करूँ ?
पापा जी इसमें आपकी गल्ती नहीं है | मेरी किस्मत में यही बदा था |
बेटी मैनें सोचा था कि अगर लड़का अपनी पत्नी का साथ दे तो सब ठीक चलता है तथा लड़की सुखी रहती है परन्तु आज मनोज जी की बातों से साफ़ जाहिर हो गया है कि वे भी अपनी माँ का पक्ष ही लेते होंगे |
प्रभा ने मुझे बड़े संयम से सांत्वना देकर कहा, पापा जी समय बड़ा बलवान होता है | वक्त के साथ साथ बहुत कुछ बदल जाता है | आप किसी बात की चिंता न करें | धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा |
इतने में प्रभा की लड़की मैत्री सोए से जागकर अपनी मम्मी को रोते हुए देख बोली, मम्मी जी आप रो क्यों रही हो, क्या पापा जी ने आपको फिर मारा ?
जैसे प्रभा की चोरी पकड़ी गई हो, चुप हो | क्या कभी तेरे पापा जी मुझे मारते हैं ?
हाँ उस दिन भी तो मारा था |
मैत्री की सुनकर मैं सकते में आ गया तथा प्रभा से जानना चाहा, क्या.......क्या बेटी ऐसा भी होता है ?
प्रभा ने आँखे चुराते हुए कहा, नहीं पापा जी यह तो बालक है इसे क्या पता |
तू धन्य है बेटी | तू अभी भी मेरे से असली बात छिपा रही है | लगता है तू अब अपने पापा को बेगाना समझने लगी है | ऐसा होना भी चाहिए, कहते कहते मेरा गला भर आया तथा आँखें नम हो गई | प्रभा के धैर्य का बाँध भी टूट जाने से वह मुझ से लिपट कर जार जार रोने लगी | क्या हुआ अगर बेटी ने अपने मुहं से कुछ नहीं बताया परन्तु अब उसके बहते आंसू सब बयाँ कर रहे थे कि उसकी बेटी अपनी ससुराल में कैसा जीवन निर्वाह कर रही थी |
मुझे ऐसा लगने लगा था जैसे मेरी नींद हमेशा के लिए उड़ चुकी थी | मैं जब भी खाली होता तो मेरा ध्यान मेरी लड़की प्रभा की तरफ चला जाता | मैं सोचने लगता कि किस प्रकार अपने दामाद को समझाऊँ जिससे प्रभा सुखमय जीवन व्यतीत करने लगे |
मुझे प्रभा से पता चला था कि उसको खाने-पीने, पहनने-ओढने, कहीं आने-जाने मन मुताबिक़ खर्चा करने इत्यादि पर कोई पाबंदी नहीं थी | उसे दुःख था तो केवल सास या सास द्वारा अपने गुरू की सेवा सुश्रा को लेकर प्रभा को खरी खोटी सुनाने का | मुझे यह भी पता चला था कि प्रभा की सास अपने गुरू से बहुत प्रभावित थी और गुरू अपना उल्लू सीधा करने के लिए अपनी शिष्या को, प्रभा के प्रति उल्टी सीधी भविष्य वाणियां करके, उकसाता रहता था | अपनी माँ की भावना के बहाव में बहकर ही मनोज अपनी पत्नी पर हाथ उठा देता होगा |
अमूमन सभी व्यक्ति अपने माता पिता से अगाध प्रेम एवं लगाव रखते हैं | मैं भी अपने माता पिता की बहुत इज्जत करता था | उनकी सेवा करने का कोई अवसर नहीं गंवाता था | उनकी हर कही बात को ध्यान से सुनता और बड़ी तत्परता से उसे पूरी करता था | वे भी मेरे प्रति बहुत लगाव एवं स्नेह  रखते थे |
मैं शादी के बाद की अपनी जीवनी के ख्यालों में खो गया | मेरी माँ अपने बच्चों की सभी बहुओं से बहुत स्नेह रखती थी | मेरी तथा मेरी पत्नी संतोष की कभी इतनी ठनी नहीं कि मारपीट की नौबत आई हो | मैनें अपने पूरे विवाहित जीवन में कभी भी अपनी पत्नी पर हाथ नहीं उठाया | हमारे बीच रूठा रूठाई तो अवश्य हो जाती थी परन्तु आपस में न बोलने का सिलसिला अधिक लंबा नहीं चलता था | मैं मौक़ा पाकर कुछ न कुछ चुहल बाजी करके संतोष को मना लेता था |
कभी कभी मजा लेने के लिए मेरी पत्नी झूठे ही रोना सा मुहं बनाकर मेरी माँ से मेरी शिकायत करते हुए कह देती थी कि मैं उससे बहुत झगडता हूँ | इस पर मेरी माँ मुझे डांटते हुए कहती, क्या पराई लड़की तू लताड़ने तथा पीटने के लिए लाया है | तुझे पता है एक बार लड़ने से उसका कितने ही दिनों का खाना हराम हो जाता होगा | अरे निर्लज तू पढ़ा लिखा होकर भी इतना नहीं सोचता कि वह एक निर्बल, कोमल एवं एक पराई अमानत है | वह तेरे लिए सब कुछ, माता-पिता, भाई-बहन और अपना घर छोड़ कर आई है | क्योंकि उसने तूझे अपना देवता स्वीकारा है और तू उसके साथ ऐसा व्यवहार करता है | धिक्कार है तुझ पर |
इस दौरान संतोष छुप छुपकर मुझे चिढाती रहती तथा अंदर ही अंदर खूब खुश होती | अगर मैं अपने बचाव के लिए कोई पक्ष रखना भी चाहता तो मेरी माँ मेरी एक न सुनती | अंत में वे मुझे चेतावनी देती, तू देख ले अगर तूने बहू पर हाथ उठाया तो मुझे से बुरा कोई न होगा |
मैं अपनी माँ की फटकार सुनकर निहाल हो जाता और छोटे बच्चों की तरह अपनी माँ से लिपट जाता | मेरी माँ भी जैसे कुछ हुआ ही न था मेरे सिर पर अपना स्नेहमयी हाथ फेरने लगती | पीछे से संतोष चुटकी लेती देखलो करा दिया न राम कौशिल्या का मिलन |  
मैं निश्चित था कि प्रभा की समस्या के समाधान के लिए उसकी सास को समझाना भैंस के आगे बीन बजाने के बराबर होगा क्योंकि वे ऐसे सांचे में ढल चुकी हैं कि उसको बदलना मुमकिन नहीं होगा | प्रभा की सास मेरी माँ की तरह अपने गुरू के कारण अपनी बहू पर तवज्जो नहीं देती होंगी |  
परन्तु मनोज एक पढा लिखा नौजवान है | अपने माता पिता की इज्जत और भावना की कद्र करने के चक्कर तथा घर की कलह को विराम देने के लिहाज से वह बिना सोचे समझे प्रभा पर हाथ उठा देता हो | फिर भी मैं इस निष्कर्ष पर पहुचां कि मुझे अपने दिल का दर्द अपने दामाद के सामने बयान करना चाहिए | मनोज मेरी बात पर अवश्य गौर करेगा क्योंकि वह एक समझदार, सुलझा एवं कुशल आचार्य है | वह अपने स्कूल में उपदेश तो अवश्य देता होगा कि हमें कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे किसी के दिल को आघात पहुंचे | परन्तु वह तो अपने कारनामें से अनजाने में एक नहीं पांच पांच व्यक्तियों के दिलों को दुःख पहुंचा रहा है | शायद वह इस बात से बे खबर था कि वह अपनी पत्नी के साथ साथ अपने सास, ससुर एवं अपनी मासूम लड़की के कोमल दिल को भी आघात पहुंचा रहा है |    
बहुत सोच समझने के बाद मैनें अपने दामाद से मिलकर उनके घर की कलह से उन्हें निजात दिलाने का मंसूबा बना लिया | मुझे मनोज जी को समझाने का ऐसा माध्यम चुनना था जिससे मेरे द्वारा उन्हें उनकी गल्ती का एहसास दिलाने से उन्हें मेरे सामने किसी प्रकार की शर्मिंदगी महसूस न करनी पड़े | क्योंकि मैं इस पक्ष में विश्वास रखता हूँ कि हिंदू रितिरिवाज एवं संस्कृति के अनुसार दामाद अपनी ससुराल में विष्णु का स्वरूप मना जाता है | और इस रूप को किसी के सामने किसी प्रकार की ग्लानी महसूस नहीं होनी चाहिए |
एक दिन मनोज जी हमारे घर आए हुए थे | मौहल्ले में किसी के घर उनके गुरू जी आए हुए थे | गुरू जी की खूब आवभगत हो रही थी | हमारे बीच बातों में गुरू जी केन्द्र बिंदु बन गए | मुझे मनोज जी को समझाने का यह अच्छा अवसर मिल गया था |
मैंने मनोज जी को बताया कि एक बार मेरी माता जी ने भी एक गुरू बनाने की इच्छा जाहिर की थी | मैनें उनकी भावनाओं की कदर करते हुए उनसे कहा, माँ, आपका गुरू बनाने से मुझे कोई एतराज नहीं है | परन्तु गुरू को हमारे घर में ठहराने से परहेज है | अर्थात आप गुरू जी की जो सेवा करना चाहें, उनके नाम पर जितना भी पैसा लगाना चाहें वह मुझे मंजूर होगा परन्तु यह कार्य आपको उनके आश्रम या हमारे घर के बाहर किसी भी स्थान पर करना होगा |
मैनें मनोज जी को जब आगे बताया कि मेरी माता जी मेरी बात से सहमत हो गई तो वे सोच में पड़ गए | उनके चेहरे पर आते जाते भावों से पता चलने लगा था कि उनके अंदर कुछ द्वन्द शुरू हो गया था | शायद उनकी सही रग पर प्रहार हो चुका था | वे अन्दर ही अन्दर बुदबुदाए शायद उनके घर में कलह का कारण उनकी माँ के गुरू ही हैं क्योंकि यदा कदा उनकी माँ अपने गुरू को लेकर ही प्रभा पर इलजाम लगाती थी कि वह उनको खाना ढंग से नहीं परोसती, आते हैं तो पानी की भी नहीं पूछती, उनका बिस्तरा नहीं लगाती...इत्यादि | एक बार तो उनकी माँ ने यह कहकर हद ही कर दी थी कि उसके गुरू जी कह रहे हैं कि प्रभा की पीठ पर सर्प के दंश जैसे दो निशान होंगे जो शुभ चिन्तक की निशानी नहीं मानी जाती | हालांकि ऐसा कुछ नहीं निकला परन्तु फिर भी मनोज जी अपनी माँ के गुरू जी की मंशा को उस समय भांप न सके थे | आज मेरी बात सुनकर शायद उनके इस बारे में सोये ज्ञान चक्षु जाग्रत हो गए थे | उनके चहरे पर एक दृढ विशवास उभरता दिखाई दिया और फिर वे आश्वस्त होकर बातों में मशगूल हो गए |
जैसे दुःख हरता के सामने दुःख हरने की फ़रियाद मन को एकाग्र करके, आँखे बंद करके तथा आदर से घुटने टेक कर करने से भगवान प्रसन्न हो जाते हैं तथा दुखिया का कष्ट हरकर याचक को बना देते हैं खुशहाल उसी प्रकार मनोज जी ने मेरी बातों को सुना, परखा, अमल में लिया और कलह की जड़, गुरू जी, को अपने घर से आश्रम का रास्ता दिखाकर घर के सभी दुखाहारों के कष्टों का निवारण करके सदा के लिए बना दिया खुशहाल |   

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